कल एक टीवी डिबेट में मेरे समक्ष अच्छा प्रश्न आया कि १९९३ में राष्ट्रपतिने धारा १४३ अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को राष्ट्रपति संदर्भ (रेफरन्स) द्वारा अयोध्या मामला हल करने को कहा था, तब क्यों नहीं हुआ और अब कैसे हो गया?
स्पॉन्टेनियस जो सूजा (कभी कभी दीर्घ विचार से कुछ बातें बॅक ऑफ माइन्ड रहती है इस से निपजा होगा) मेरा जवाब यह था कि-
तब
- उस समय एक तो देश की आर्थिक स्थिति बहोत ही खराब थी। सोना गिरवी रखना पडे एसी स्थिति में से उगरने का प्रयास था। उदारीकरण की नई नई नीति आई थी। देश में एक अजंपा था।
- राजकीय स्थिरता भी नहीं थी। नरसिंहराव की लघुमती सरकार भाजप के समर्थन से (मतलब कि सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव जुलाई १९९३ में लाया गया और तत्कालीन आरोप के अनुसार खरीदे हुए झा.मु.मो. के समर्थन से सरकार बचाई गई।)
- उस समय मिडिया, युनिवर्सिटी समेत सब स्थान पर वामपंथी-लिबलर-सेक्युलरो का वर्चस्व था। याद है, जर्जरीत ढांचा तूटने पर मिडिया समेत सब लोगों ने मातम मनाया था?
-आज के प्रकार उस समय ६ दिसम्बर के आसपास दंगे रोकने के लिए इतनी सज्जड सुरक्षा व्यवस्था नहीं की गई थी।
- उस समय पाकिस्तान में भी कई मंदिर एक जर्जरीत ढांचे को तोडने के बाद तोडे गये थे।
- सर्वोच्च न्यायालय में बैठे हुए मि. लॉर्ड भी आसपास की इको सिस्टम से प्रभावित न हो एसा हो नहीं सकता।
आज की स्थिति
- आज क्रमशः पीछले पांच वर्षो में पूरे देश में काफी परिवर्तन आई है। पूरी तो नहीं, लेकिन धीरे धीरे इको सिस्टम बदल रही है। सॉशियल मिडिया और मिडिया में भी कुछ हद तक लोगों की हिंमत खुल रही है।
- उस समय टीवी चेनलें ही नहीं थी तो डिबेट नहीं होती थी। आप को जो मानना है, आप मानीए, लेकिन डिबेट में काफी हद तक संवाद होता है। इस से एक वातावरण भी बनता है।
- पीछले कुछ वर्षो में तारिक फतेह, सुबहु खान जैसे कई राष्ट्रवादी मुसलमान जैसे आगे आए हैं।
- उस समय इस्लाम खतरे में है सूनकर मुस्लिम लोग निकल पडते थे। १९९३, २००२, २०१३ के बडे दंगो के बाद अब मुस्लिम- हिन्दू दोनों को समज में आया है कि पंथ की राजनीति से किसी सामान्य मानवी का भला नहीं होता। जेल में जानेवाले के परिवार का क्या हाल होता है और तिस्ता शेतलवाड जैसे लोग दंगापीडितो के नाम पर कथित रूप से अपनी अय्याशी करते है। आज सब के लिए अपनी आर्थिक आवश्यकतायें प्रमुख है। ९० में हडताल, बंध बारबार किसी न किसी बहाने से होते थे, आज वह कम हो गये है। लोग जान गये है कि वामपंथी संगठनों ने एसी हडताल-बंधो से केवल उद्योग-धंधे बंध करवाये है। अमदावाद-भावनगर में कितनी मिलें बंध हो गई? कितनों की रोजी गई?
-उस समय पूरे देश में बहोत राज्यो में कॉंग्रेस व उस के जैसे विचारवाले सेक्युलर दलों की सरकारें थी। यह भी एक कारण था। आज पूरे देश में अधिकांश राज्य में भाजप या उस के समर्थित दलों से चलनेवाली सरकार है।
- ओर तो ओर, सर्वोच्च न्यायालय में दस्तावेजो के अनुवाद के कार्य आदि में भी विलंब हो रहा था। या किया जा रहा था। कॉंग्रेस के नेता और इस केस में वकील कपिल सिबल ने तो लोकसभा चुनाव २०१९ तक केस की सुनवाई टालने को कहा था। और नहीं टाला तो महाभियोग के बहाने से न्यायमूर्ति पर दबाव बनाया था।
-लोगों में एक चर्चा यह भी है कि #Metoo भी सकारात्मक परिणाम ला सकता है!