"हम को मारो सालो, हम को झिंदा मत छोडो, हम कोई मंदिर का घंटा है, जो हर कोई बजा के चला जाता है"।
आज कई हिन्दूओ को अपनी स्थिति एसी ही लगती है। शनि सिंगळापुर हो या सबरीमाला, सर्वोच्च फटाक से निर्णय दे देती है। ट्रिपल तलाक हो या राममंदिर, सर्वोच्च न्यायालय का आदेश सेक्युलर लगे इस लिए बॅन्च में हिन्दू इतर न्यायाधीश रखे जाते है लेकिन सबरीमाला केस में आज जो आदेश आया है उस में पीठ में एक पारसी न्यायाधीश है।
आज एक चेनल पर डिबेट चल रही है उस में एक पारसी महिला हिन्दू स्त्रीओ के हक में बोल रही है। लेकिन क्या पारसीओ के पंथ की मान्यता में कोई दखल देता है? पारसीओ के फायर टेम्पल में पारसी इतर पंथ के लोगों को प्रवेश की अनुमति नहीं है। लेकिन क्या कोई एनजीओने इस विषय में सर्वोच्च में अपील की?
जिस तरह से एनजीओ हिन्दू विषय में सर्वोच्च में अपील करने लगी है उस के पीछे कल्चरल मार्क्सवाद का एजन्डा साफ दिखाई देता है।
गुजरात में महत्त्व के मंदिर सरकार के अधीन है। क्यों मंदिर ही सरकार के अधीन? क्योंकि वहां दान इतना ज्यादा आता है? या हिन्दूओ के आस्था के केन्द्र है इस लिए? कोई मस्जिद, चर्च या पारसी धर्मस्थान क्यों नहीं?
हिन्दूओ के लिए नहेरु के झमाने से हिन्दू कोड बिल लाया गया, लेकिन किसी और पंथ को कोई कायदा क्यों लागु नहीं पडता? मंदिर है वो प्राइवेट एन्टिटी है। उस में किस को प्रवेश देना, या न देना वो अंगत विषय हो सकता है। हालांकि उस में सभी वर्ग (उच्च या दलित सभी) को प्रवेश होना चाहिए, सभी लिंग (पुरुष या स्त्री) को प्रवेश होना चाहिए ये मेरी दृढ मान्यता है। लेकिन, मेरी दलील यह है कि केवल हिन्दूओ के विषय में हस्तक्षेप क्यों?
आज कोई भी अन्य पंथ का कोई व्यक्ति जो अपने आप को बिशप या मौलवी कहलाता है वह बलात्कार करता है तो भी मिडिया उस को महत्त्व नथी देता। और कई बार तो उस को भी हेडिंग में बाबा कह के संबोधित करता है। अभी हाल ही में आशु बाबा नाम का व्यक्ति मूल नाम से आसिफ निकला। लेकिन टीवी न्यूझ चेनल पर चर्चा में और स्क्रीन पर जो टेक्स्ट आता था उस में बाबा ही चल रहा था। साधु या शैतान एसा हेडिंग ही चल रहा था। अभी हाल में केरल में एक नन पर बलात्कार में जो जलंधर का बिशप पकडा गया उसे जब तक बिशप के पद से रोम के चर्चने हटाया नहीं तब तक पुलीस ने उसे गिरफ्तार नहीं किया। ये सुविधा क्यों, भाई? ताकि रेकोर्ड पर वो बिशप है वो न आ सकें। और इस बिशप (और अन्य कई एसे केस, जिस में मधर टेरेसा के मिशन ऑफ चेरिटिझ की नन बच्चों का व्यापार करते पकडी गई) जैसे केस को मिडिया में कितना वेइटेज मिला, उन पर कितनी डिबेट हुुई? आसाराम, निर्मल बाबा, बाबा राम रहीम के मुकाबले नहींवत्! हिन्दू बाबाओं पर अनेक सप्ताह और कई बार तो अनेक महिने तक डिबेट चली। लेकिन बिशप और नन पर क्यों नहींवत् डिबेट? मौलवीओ पर क्यों कोई डिबेट नहीं करता?
हाल ही में 'काला' फिल्म देखी। रजनीकांत की क्वचित पहली फिल्म होगी जो पसंद नहीं आयी। मुझे तो आश्चर्य होता है कि मोदी सरकार में यह फिल्म सेन्सर बॉर्ड से पास क्यों हो गई। स्पष्ट रूप से कल्चरल मार्क्सवाद के एजन्डे से यह फिल्म बनाई गई। दलित विरुद्ध सवर्ण को दिखाया गया। रजनीकांत दलित है। काले रंग का है। काले कपडें पहनता है। विलन नाना पाटेकर सफेद कपडें पहनता है। और उस के ध्वज भगवा रंग के है। बेनर पर मनुवाद लिखा है। नाना पाटेकर ब्राह्मण भी है। उन की पार्टी का नाम नवभारत नेशनलिस्ट पार्टी है। मतलब नेशनलिस्ट होना यानि अत्याचारी होना। दलित विरोधी होना। और आजकल तो राष्ट्रवाद का ठेका भारतीय जनता पक्षने ले रखा है। तो स्पष्ट रूप से संकेत है कि भाजप एन्टी दलित है। अत्याचारी है। और भाजप यानि भगवा, केसरिया यह भी मान्यता दृढ हो गई है। (हालांकि भाजप के ध्वज में हरा रंग भी है।) यह वर्ग संघर्ष को भडकाने का स्पष्ट प्रयास था। या तो यह फिल्म एक और हिन्दूवादी पक्ष शिव सेना के विरुद्ध थी क्योंकि नाना पाटेकर 'जय महाराष्ट्र' का सूत्र बोलते है। आश्चर्य है कि शिव सेना ने भी इस फिल्म का विरोध नहीं किया। रजनीकांत की प्रेमिका मुस्लिम है। यानि दलित-मुस्लिम भाई भाई का जो एजन्डा वामपंथी चला रहे है इस का यह स्पष्ट द्योतक है। रजनीकांत के पुत्र का नाम लेनिन है जो रशिया के साम्यवादी नेता का नाम था। एक दृश्य में नाना पाटेकर की पोती उन को पूछती है कि क्या श्री राम ने सचमूच रावण को मारा था? नाना कहते है, "वाल्मीकि ने एसा लिखा है तो मारा ही होगा।" यानि एक तरह से राम दवारा रावण को मारे जाने पर संदेह उत्पन्न करने का प्रयास। नाना को कहना चाहिए था, कि हां मारा ही था। रामसेतु है और जगह जगह पर राम ने अयोध्या से जो रामेश्वरम् तक प्रवास किया उस के प्रमाण भी। इस में एसा गोलमटोल उत्तर देना यानि संदेह उत्पन्न करना। एक दृश्य में जब रजनीकांत की धारावी झोंपडपट्टी में जब दलितों को मारा जा रहा होता है तब नाना पाटेकर रामायण का पाठ सून रहे होते है। ये भी रामायण को अत्याचार से जोडने का प्रयास है। एक दृश्य में रजनीकांत एनपीपी के नेता को कहते है कि "भगवान (कृष्ण) के आदेश पर अर्जुन ने लोगों की हत्याएें की। भगवान भी गलत है।" यहां पर भगवान कृष्ण को भी गलत ठहराने का प्रयास हुआ। पांडवो पर जो अत्याचार बाल्यावस्था से हुए यह दिखाए बिना अर्जुन ने लोगों को मारा, यह कहना अर्जुन और श्री कृष्ण को अत्याचारी साबित कर देता है। यहां लोगों शब्द पर भी ध्यान देना होगा। कौरवो या अत्याचारीओ को मारा एसा शब्द का प्रयोग नहीं हुआ।
एक रूप से अच्छा ही हुआ क्योंकि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लोप हो गई। लेकिन टीवी पर धडल्ले से दिखाई जाती है। और टीवी पर निःशुल्क देखनेवालों के मन में कल्चरल मार्क्सवाद का यह वर्ग संघर्ष पेदा करनेवाला एजन्डा घर करता ही होगा।
रिलायन्स के मालिकी वाले चेनल कलर्स पर बिग बोस में एक तरफ तो सन्नी लियोन, राखी सावंत जैसी अभद्र कही जानेवाली महिलाओ को लाते है। घर में केवल झघडा, चूगली, निंदा आदि ही होती है। दूसरी तरफ, कहां से किसी नकली स्वामी ओम को लाते है। इस बार अनुप जलोटा को लाया गया जिस की गर्लफ्रेन्ड की बात को हाइप दिया गया। यानि जो हिन्दू भजन गाता है उस की छबी छिछोरे और ठरकी की बनाई गई। अगर अनुप एसे है ही तो क्यों केवल हिन्दूओ मेें से एसे लोगों को चून चून के लाये जाते है?
तो कहने का अर्थ यह है कि आजकल आस्थावान हिन्दूओ को स्पष्ट रूप से यह लगने लगा है कि हिन्दू कोई स्वामी के बिना की जमीन है जिस पर कोई भी कबजा कर लेता है। और संघ आदि हिन्दू संगठन चूपचाप ये सब देख रहे हैं।