न खाता न वही, सीताराम केसरी कहे वो ही सही
कोंग्रेस के कोषाध्यक्ष जब सीताराम केसरी थे तब एसा कहा जाता था लेकिन जिस तरह और जिस लहजे में राहुल गांधी ने राफेल पर सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से नकारा है इस से लगता है कि न फ्रान्स के प्रमुख सही न सर्वोच्च न्यायालय सही, राहुल कहे वो ही सही।
सीजेआई दीपक मिश्र के विरुद्ध जस्टिस लोया को लेकर चार जस्टिस ने सरेआम विद्रोह किया और कोंग्रेस उनके विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव लाने की धमकी देकर मिश्र पर दबाव लाये। रंजन गोगोई जो कि उन चार विद्रोही जस्टिस में से थे, वे सीजेआई बने। लेकिन उनके द्वारा दिया गया जजमेंट राहुल को मंजूर नहीं । सोचो, मिश्र ने आदेश दिया होता तो तो राहुल कतई नहीं मानते।
कोंग्रेस द्वारा न्यायपालिका पर दबाव व उसके जजमेंट का अनादर नयी बात नहीं। 1973 में तीन वरिष्ठ जस्टिसो को ओवरटेक कर के इन्दिरा ने जस्टिस ए एन राय को सीजेआई बनाया था। इन तीन जस्टिस का कसूर ये था कि संविधान के मूलभूत ढांचे को बदल देनेवाले अमेंडमेन्ट को उन्होने नकार दिया था। लेकिन ए एन राय ने इस आदेश के विरुद्ध अपना मत दिया था । इस का उन को इनाम मिला था।
इस के बाद आपातकाल दौरान जिस 18 जज ने 'मिसा' जैसे अत्याचारी कानून के अंतर्गत गिरफ्तारी का विरोध किया वे जजों का तबादला कर दिया गया। इस में से एक थे जस्टिस अगरवाल। उनको थोडे ही समय में परमेनन्ट बनाना था लेकिन उसको सजा के रूप में सेशन्स कोर्ट भेज दिया । कोंग्रेस ने बहाना दिया कि जस्टिस अगरवाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक है। दूसरे जज का दिल्ली से असम तबादला कर दिया गया।
जस्टिस एच आर खन्ना ने हेबियस कोर्पस में इन्दिरा का कहा न माना। इस लिए उन को इन्दिरा ने मुख्य न्यायमूर्ति न बनाया।
शाहबानो केस का सर्वोच्च का आदेश राजीव गांधी सरकार ने कानून से पलट दिया। अपराधी सांसदो को चुनाव लडने से मना करनेवाले सर्वोच्च के आदेश को मनमोहन ने पलट दिया। चूं कि जन आक्रोश बढा और लोक सभा चुनाव नजदिक आ रहे थे, इस लिए राहुल गांधी ने सरेआम बिल फाड दिया जब प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह विदेश में थे। इस तरह राहुल सुपर कोन्स्टिट्यूशनल ओथोरिटी यानि संविधान से भी उपरी सत्ता की तरह बर्ते क्योंकि राहुल उस समय कोई संवैधानिक पद पर नहीं थे।