सौजन्य: इन्टरनेट
आतंकवाद या कट्टरवाद का सामना करने के लिए क्या करना चाहिए? वास्तव में सभी पंथो के (सच्चे) लिबरलों को साथ में आना चाहिए लेकिन विश्व भर में तथाकथित लिबरलों व वामपंथियों ने हंमेशां मुस्लिम कट्टरवाद को अनेकरूप से मदद की। परिणाम ये हुआ कि वो पनपता गया प्रत्येक देश में। लेकिन पीछले तीन वर्ष से विश्व इस बात पर गंभीर हुआ है।
फ्रान्स ने जो मसूद अजहर की संपत्ति जप्त की वो ना कि इस लिए कि भारत उसके पास से राफेल खरीद रहा है। किन्तु इस कारण से कि पेरिस में २०१५ से पूर्व बडा आतंकी हमला हुआ। जर्मनी समेत कई देश जिन्होंने मानवता के नाम पर जिस मुस्लिम शरणार्थीओं को आश्रय दीया वह पारसी समुदाय की तरह दूध में शक्कर की तरह घूल जाने के स्थान पर आज वहां समस्या बने हुए है।
वास्तव में मुस्लिम समुदाय के कई कट्टर न तो अपना टोपी, दाढी, बुर्का वाला पहनावा छोडते है, न भाषा। अपने परिवार या अपने घर के अंदर यह सही है। किन्तु यह चीजें आतंकी प्रवृत्ति के कारण निर्दोष आम मुस्लिम की भी पहचान बन जाती है। अर्थात् अमरिका से लेकर न्यूझीलेन्ड तक दाढी, टोपी, पायजामा, बुर्का पहनी हुई व्यक्ति को शक की नजर से देखा जाता है। परिस्थिति ये आ गई कि शाहरूख खान को भी उसके कुलनाम खान के कारण सख्त जांच का सामना अमेरिकी हवाई अड्डे पर करना पडा।
मुस्लिम आतंकवादी वास्तव में उनके भाईबहन के ही दूश्मन बनते जा रहे है। आप भारत या विदेश में इसाई, हिन्दू, पारसी, यहूदी, बौद्ध कोई भी पंथ की व्यक्ति ले लीजिए। क्या पहनावे या भाषा से आप किसी की पहचान कर सकते है कि यह हिन्दू है, या इसाई है या बौद्ध है? एसा क्या कारण है कि चीन समेत हर एक देश में कट्टर मुस्लिम अलगाववाद पैदा कर अपना अलग देश बनाना चाहता है? जिस प्रकार हिन्दू, इसाई में सुधारवादी आंदोलन होकर उदारवादी की बहुमती बनी एसा इस्लाम में होना इस समय की तात्कालिक मांग है।
१४ फरवरी को पुलवामा हमला हुआ तब जिस प्रकार कट्टर मुस्लिमों ने व तथाकथित लिबरलोंने खुशी प्रगट की एसा क्राइस्ट चर्च के हमले को लेकर हो सकता है? नहीं। वास्तव में भारत हो या कोई अन्य देश, तथाकथित लिबरल बुद्धिजीवी और लिबरल राजनीतिक दल ही मुस्लिमो के सब से बडे शत्रु है यह बात मुस्लिम समुदाय जितना जल्दी समजे उतना अच्छा है। जैसे कि भारत में चुनाव घोषित होने के पश्चात् विपक्षी दलो ने मुस्लिमों को खुश करके मत पाने के लिए चुनाव रमजान में कराने का विरोध किया। यह तो अच्छा है कि असउद्दीन ओवैसीने ही एसी चेष्टा का विरोध किया। विपक्षी दलों की चेष्टा से हिन्दूओ के ध्यान में यह बात आई कि मतदान के समय चैत्री नवरात्रि भी है। लेकिन वह तो विरोध नहीं करते। लेकिन मान लीजिए कि विपक्षी दलों की मांग मान ली होती तो हिन्दुओं में अन्याय की भावना बढती और कट्टरता को बढावा मिला होता।
आज भी एवरेज हिन्दू, इसाई, पारसी, यहूदी, बौद्ध कट्टर नहीं है। ना कि उनके कोई एसे संगठन जो पूरे विश्व में आतंकी हमला कराये। पूरे विश्व के अपने बांधवो को जिहाद के लिए उकसाये। कश्मीर या शीनजियांग जैसे अलग प्रदेश के लिए यदि स्थानिक मुस्लिम लड रहे हैं तो उसको नैतिक या अन्य रूप से समर्थन देने की बात करें।
इसी लिए न्यूझीलेन्ड की घटना एक चेतावनी है, पूरे विश्व के लिए। आतंकवादी मसूद अजहर को बचा रहे चीन और पाकिस्तान भी समजे। वर्ना अटलजी कि यह पंक्ति सही हो जायेगी।
इसे मिटाने की साजिश करनेवालों से
कह दो चिनगारी का खेल बूरा होता है
औरों के घर आग लगाने का जो सपना
वह अपने ही घर में सदा खरा होता है
आतंकवाद या कट्टरवाद का सामना करने के लिए क्या करना चाहिए? वास्तव में सभी पंथो के (सच्चे) लिबरलों को साथ में आना चाहिए लेकिन विश्व भर में तथाकथित लिबरलों व वामपंथियों ने हंमेशां मुस्लिम कट्टरवाद को अनेकरूप से मदद की। परिणाम ये हुआ कि वो पनपता गया प्रत्येक देश में। लेकिन पीछले तीन वर्ष से विश्व इस बात पर गंभीर हुआ है।
फ्रान्स ने जो मसूद अजहर की संपत्ति जप्त की वो ना कि इस लिए कि भारत उसके पास से राफेल खरीद रहा है। किन्तु इस कारण से कि पेरिस में २०१५ से पूर्व बडा आतंकी हमला हुआ। जर्मनी समेत कई देश जिन्होंने मानवता के नाम पर जिस मुस्लिम शरणार्थीओं को आश्रय दीया वह पारसी समुदाय की तरह दूध में शक्कर की तरह घूल जाने के स्थान पर आज वहां समस्या बने हुए है।
वास्तव में मुस्लिम समुदाय के कई कट्टर न तो अपना टोपी, दाढी, बुर्का वाला पहनावा छोडते है, न भाषा। अपने परिवार या अपने घर के अंदर यह सही है। किन्तु यह चीजें आतंकी प्रवृत्ति के कारण निर्दोष आम मुस्लिम की भी पहचान बन जाती है। अर्थात् अमरिका से लेकर न्यूझीलेन्ड तक दाढी, टोपी, पायजामा, बुर्का पहनी हुई व्यक्ति को शक की नजर से देखा जाता है। परिस्थिति ये आ गई कि शाहरूख खान को भी उसके कुलनाम खान के कारण सख्त जांच का सामना अमेरिकी हवाई अड्डे पर करना पडा।
मुस्लिम आतंकवादी वास्तव में उनके भाईबहन के ही दूश्मन बनते जा रहे है। आप भारत या विदेश में इसाई, हिन्दू, पारसी, यहूदी, बौद्ध कोई भी पंथ की व्यक्ति ले लीजिए। क्या पहनावे या भाषा से आप किसी की पहचान कर सकते है कि यह हिन्दू है, या इसाई है या बौद्ध है? एसा क्या कारण है कि चीन समेत हर एक देश में कट्टर मुस्लिम अलगाववाद पैदा कर अपना अलग देश बनाना चाहता है? जिस प्रकार हिन्दू, इसाई में सुधारवादी आंदोलन होकर उदारवादी की बहुमती बनी एसा इस्लाम में होना इस समय की तात्कालिक मांग है।
१४ फरवरी को पुलवामा हमला हुआ तब जिस प्रकार कट्टर मुस्लिमों ने व तथाकथित लिबरलोंने खुशी प्रगट की एसा क्राइस्ट चर्च के हमले को लेकर हो सकता है? नहीं। वास्तव में भारत हो या कोई अन्य देश, तथाकथित लिबरल बुद्धिजीवी और लिबरल राजनीतिक दल ही मुस्लिमो के सब से बडे शत्रु है यह बात मुस्लिम समुदाय जितना जल्दी समजे उतना अच्छा है। जैसे कि भारत में चुनाव घोषित होने के पश्चात् विपक्षी दलो ने मुस्लिमों को खुश करके मत पाने के लिए चुनाव रमजान में कराने का विरोध किया। यह तो अच्छा है कि असउद्दीन ओवैसीने ही एसी चेष्टा का विरोध किया। विपक्षी दलों की चेष्टा से हिन्दूओ के ध्यान में यह बात आई कि मतदान के समय चैत्री नवरात्रि भी है। लेकिन वह तो विरोध नहीं करते। लेकिन मान लीजिए कि विपक्षी दलों की मांग मान ली होती तो हिन्दुओं में अन्याय की भावना बढती और कट्टरता को बढावा मिला होता।
आज भी एवरेज हिन्दू, इसाई, पारसी, यहूदी, बौद्ध कट्टर नहीं है। ना कि उनके कोई एसे संगठन जो पूरे विश्व में आतंकी हमला कराये। पूरे विश्व के अपने बांधवो को जिहाद के लिए उकसाये। कश्मीर या शीनजियांग जैसे अलग प्रदेश के लिए यदि स्थानिक मुस्लिम लड रहे हैं तो उसको नैतिक या अन्य रूप से समर्थन देने की बात करें।
इसी लिए न्यूझीलेन्ड की घटना एक चेतावनी है, पूरे विश्व के लिए। आतंकवादी मसूद अजहर को बचा रहे चीन और पाकिस्तान भी समजे। वर्ना अटलजी कि यह पंक्ति सही हो जायेगी।
इसे मिटाने की साजिश करनेवालों से
कह दो चिनगारी का खेल बूरा होता है
औरों के घर आग लगाने का जो सपना
वह अपने ही घर में सदा खरा होता है