प्रतीकात्मक तसवीर सौजन्य : इन्टरनेट |
भारत में मंदी की बात मिडिया में जोरशोर से कब से होने लगी? जुलाई में खातावही में सुपर रिच टेक्स २५ प्रतिशत करने और कॉर्पोरेट टेक्स नहीं घटाने के निर्णय के बाद।
वैसे भी अमरिका और चीन के बीच चल रहे व्यापार युद्ध और वैश्विक मंदी के चलते भारत को थोडीबहोत तो असर होनेवाली ही थी, किन्तु एक मानसिकता भी होती है। एसे मोके का फायदा उठाकर 'मंदी है, मंदी है' एसा शोर मचाकर अपना मुनाफा यथावत रखने के लिए अपनी कंपनी से कर्मचारियों को निकालने की या उनकी सेलरी घटाने की कसरत होती है। यह एक संक्रमण जैसा होता है। देखादेखी में यह आगे बढता है।
कुछ कंपनियाँ (जैसे पार्ले जी) नोकरी में से निकालेंगे एसी हवा फैलाती है। जिसका एक उद्देश्य सरकार लाभ घोषित करे तो पाना होता है और दूसरा, कर्मचारी निकाले जाने के डर से पगार बढाने की बात न करे, मंदी के बहाने उसको यदि और कोई काम सोंपा जाये तो वह करें। कदाचित इन्हीं सब कारणों के चलते इन बडी मछलीओने शॅयर बाजार में भी मंदी बनाकर रखी है।
जहां तक ओटो मोबाइल की मंदी की बात विशेष रूप से की जा रही है, इस के पीछे दो कारण है। पीछले कुछ वर्षो से कार और टु व्हीलर लॉन उपलब्ध होने के कारण लोग अपने घर में प्रति सभ्य एक टु व्हीलर और प्रति फेमिली एक कार (यदि परिवार की कमाई अच्छी है तो दो कार) खरीदने लगे थे। लेकिन उसका कोई चरम बिंदु तो आनेवाला ही था। पेट्रोल-डीझल के बढते दाम और बढते ट्राफिक से कुछ लोग एसे भी होंगे जिन्होंने कार खरीदने की योजना टाल दी हो। तीसरा कुछ ही अमीरचंद एसे होंगे जो नई कार मार्केट में आने पर खरीद लेते होंगे।
दूसरा कारण, मोदी सरकार इलेक्ट्रिक वाहनों पर जोर दे रही है। इसके पीछे वैश्विक पर्यावरण में परिवर्तन है जिस में भारत नेतृत्व करे एसी संभावना है। पेट्रोलियम पर इस्लामिक देशों की दादागीरी समाप्त करके इस्लामिक आतंकवाद की शबपेटी की किल ठोकना भी है और इससे विदेशी मुद्रा बचाकर रूपिये को मजबूत करना भी हो सकता है।
अब जब कि ओटो मोबाइल के लिए वाहन प्रदूषण की डेडलाइन हटा दी गई है, सरकार ने अर्थतंत्र को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ कदमों की घोषणा की है तो आशा है कि मंदी मंदी की बूमाबूम कुछ हद तक घटेगी। वैश्विक मंदी का तो जो प्रभाव होगा, वो तो होगा ही।
मंदी का एक कारण पीछले वर्ष अच्छी बारिश न होना भी हो सकता है। इस वर्ष बहोत अच्छी बारिश हुई है तो आनेवाले महिनों में इसका असर दिखेगा।
अगर मंदी ही है तो लोगों की खरीदी क्यों अभी भी ज्यादा है। अभी मैं पूणे गया था। वहां की मार्केट में अभी जन्माष्टमी के बाद भी बहोत भीड थी। अमदावाद हो या कोई और शहर, होटल, रेस्टोरन्ट या सस्ते खोराक की दुकान, ठेलेवाला, भीड तो रहती ही है। ओनलाइन खरीदी और ओनलाइन भोजन के आदेश में कोई कमी दिखती नहीं है। तो जो लोग मंदी की बूमाबूम कर रहे है वह व्यापारी कहीं ओनलाइन खरीदी की कंपनियों के चलते तो बूमाबूम नहीं कर रहे है ना? यह सोचने की आवश्यकता है। कदाचित बिजनेस मोडल तो नहीं बदल रहा? क्यों न एसे व्यापारी मिल के अपनी एमेझोन जैसी कंपनी न बनाये? सरकार को भी ओनलाइन कंपनियों पर कर डालने की आवश्यकता है।
और जहां तक भारत की अॉटो मोबाईल कंपनियां मंदी के नाम पर स्टिम्युलस पेकेज मांग रही है, मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम ने ठीक ही कहा कि मुनाफा हो तो अपना, लेकिन नुकसान हो तो पूरे देश का यह मानसिकता सही नहीं है।
मैं तो यह कहना चाहूंगा कि पेकेज देना है तो उन कर्मचारियों को दीजिए जिनको यह बडी बडी कंपनियां अपनी जेब भरी की भरी रहे इसके लिए निकाल रही है। इस के कारण अब उनको दूसरी जगह भी कम वेतन में नौकरी मिलेगी। कंपनियां अपने सीइओ का वेतन क्यों नहीं कम करती? किसी कंपनी के सीएमडी ने मानवता को ध्यान में रखकर क्या यह घोषणा की कि वह अपना वेतन कम करेंगे जिससे सभी नहीं तो ना सही, कुछ कर्मचारियों की नौकरी तो बच जायेगी।
इस मानसिक मंदी के वातावरण में सरकार को दूध-सब्जी, चाय, हॅयर कटिंग सलून, स्कूल-कॉलेज, हॉस्पिटल जैसी आवश्यक सेवाओं के दाम भी कम करवाने चाहिए। मेडिक्लेम प्रिमियम भी घटाना चाहिए। इस मानसिक मंदी में सब से ज्यादा कोई पीडित होता है तो वह मध्यम वर्गीय व्यक्ति ही होता है क्योंकि उद्योगपतियों से राजनीतिक दलों को चंदा चाहिए इस लिए उनकी हंमेशां चलती है। गरीबों की मत बॅन्क है। उनके लिए सरकारी योजनाएं भी है। लेकिन मध्यम वर्गीय स्वावलंबी भी है और स्वाभिमानी भी। वह किसी के पास हाथ फैलाना नहीं चाहता, सिवाय कि उसके पास ओर कोई चारा न हो।
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