Wednesday, August 29, 2018

वामपंथी को मिटा दोगे, लेकिन विचार को कैसे मिटाओगे?


जयवंत पंड्या 
संघ और भाजप अर्बन नक्सल का रोना रो रहे है किन्तु वह आये कहां से? विचार का प्रसार कैसे हुआ? क्या ये चिंतन हुआ? इस की काट क्या होगी? कितनो को जैल में डालोगे? इस विचार की जड तक जाना होगा।

संघ जिस वृक्ष की भाजप-विहिप-वनवासी कल्याण आश्रम-मजदूर संघ आदि शाखाएं हैं उसने और उसमें से जन्मे पारिवारिक संगठनो ने शारीरिक और बौद्धिक कौशल्यो के विकास पर तो बल दिया किन्तु चार सब से अधिक महत्वपूर्ण क्षेत्रों के प्रति उदासीनता बरती। यह चार क्षेत्र हैं - मिडिया, अध्यापन, साहित्य, और कला (फिल्म, टीवी, चित्र, नृत्य, संगीत, नाटक इत्यादि) और अभी भी यह उदासीनताने उसका घेरा नहीं छोडा, या यूँ कहिए, संघ  परिवार छोडना नहीं चाहता।

वामपंथी-माओवादी-नक्सली अपने वैचारिक जन्म से ही समुचे विश्व में इस क्षेत्र में मूल जमाये हुए हैं। एक तरह से पूरा विश्व दो धडो में बंटा हुआ है - वामपंथी या उसके विरुद्ध। किसी देश में उसका सामना मूडीवाद और ईसाई विचारो से है तो कहीं समाजवाद, मूडीवाद या हिन्दूवाद से है। हां, यह भी मजेदार सत्य है कि उनका सामना इस्लामिक कट्टरता या आतंकवाद से नहीं है। क्योंकि जहां पर उनका शासन है वहां वे दूसरी किसी भी विचारधारा को पनपने ही नहीं देते। उदाहरण - रशिया, चीन, उत्तर कोरिया। और जहां पर इस्लाम शासन में है वहां भी ऎसा ही है।

इसी कारण से अमरिका हो या भारत, वहां वे राजनैतिक रूप से शून्यवत होने के बावज़ूद खूब होहल्ला मचा पाते है। यह बात इस्लामी कट्टरता पे भी लागु होती है। याद कीजिए सीरिया के बच्चे की वो तस्वीर जिसकी कहानी बाद में गढी़ हुई कहानी साबित हुई। (https://www.express.co.uk/comment/expresscomment/604590/Migrant-crisis-the-truth-about-the-boy-the-beach-Aylan-Kurdi) इससे विपरीत अमरिका, पाकिस्तान, बांग्लादेश में हिन्दूओं पर क्या क्या नहीं बीती! यहां तक कि भारत में कश्मीर में हिन्दू का षड्यंत्रपूर्वक निष्कासन हुआ, यातनाएं दी गई लेकिन क्या उनकी कहानी भारत से इतर कोई जानता भी है? क्या उनकी कोई तस्वीर ने पूरे विश्व को झकझोर के रख दिया? गांधीनगर में अपनेआप को हिन्दूवादी कहनेवाली भाजप सरकार के नाक के नीचे एक ईसाई स्कूल में एक शिक्षक हिन्दू विद्यार्थी को बहनने स्नेह से बांधी हुइ राखी निकालने पर विवश करता है। और कहीं और जगह बिंदी निकलवाता है तो कहीं चूड़ी। सोचिए, यदि पंद्रह में से किसी भी भाजप शासित राज्य में सरकारी शाला में यदि हिन्दू शिक्षक ने किसी इसाई बच्चे का क्रॉस या किसी मुस्लिम बच्ची का बुर्का निकलवाया होता तो अंतरराष्ट्रीय सुर्खि बन गई होती। सिख और बौद्ध की परिस्थिति अलग नहीं है। अमरिका में सिखों विरुद्ध कम हिंसा नहीं होती। उनकी पघडी उतरवाइ जाती है। लेकिन उनकी कौन सूने। म्यांमार और श्रीलंका में बौद्ध पीडित है लेकिन विश्व तो रोहिंग्या और श्रीलंकाई मुस्लिमों को ही पीडित मानता है। यहां तक कि सीरिया जैसे देश में तो मुस्लिम ही मुस्लिम से लड रहा है फिर भी वहां से भागे हुए लोगों के प्रति सहानुभूति ब्रिटेन को छोड पूरे युरोप में है लेकिन उनको भी अनुभूति हो रही है जब फ्रान्स और जर्मनी में फिदायीन हमले होने लगे, नारियों पर यौन हमले (sexual assault) और बलात्कार होने लगे। अमरिका भी इस बात को ट्रम्प और वहां के सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से समज रहा है।


बात संघ खेमे और वामपन्थी - अर्बन नक्सलियों खेमे थी। उसी पर पुनः चलते हैं। करुणा यह है कि भारत में जिस दल के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंहने भी नक्सलवाद को गंभीर खतरा बताया था, वर्तमान घटनाक्रम में आरोपी में से कईयों की गिरफ्तारी कॉग्रेस की केन्द्र और महाराष्ट्र सरकारों में हुई थी उसी दल का अध्यक्ष (राहुल गांधी) आज इसी नक्सल समर्थक के साथ खड़े दिखते हैं। जिस प्रकार से नेहरूजी मार्क्सवाद से प्रभावित हुए और उनको वामपंथियोंने घेरे रखा था (ब्रिटिश दस्तावेज अनुसार नेताजी सुभाषचंद्र बोस के डिप्टी, जो पंडित नेहरू के गाढ मित्र भी थे ऎसे एसीएन नाम्बियार सोवियत जासूस थे जिनको जर्मनी ने अपने देश से निकाल दिया था। नेहरूजी ने उन्हें भारतीय राजदूत बना दिया था।) कम्युनिस्ट नेता  पी सी जोशी ने वामपंथी पत्रिका मेनस्ट्रीम वीकली में नेहरूजी के विषय में यह लिखा,
"Nehru was the one non-Communist leader who drew most avidly from the ideological treasury of Marxism-Leninism as embodied in the victory of the Russian Revolution, the foundation of the first Socialist State and the existence and growth of a World Communist Movement. He respectfully studied the ideas of scientific Socialism as best as he could and with his own limitations."

हालांकि इसी पी सी जोशी को महात्मा गांधी ने ११ जून १९४४ को लिखे अपने पत्र में कई चुभनेवाले प्रश्न पूछे थे।
 उदाहरणार्थ -
१. कम्युनिस्ट पार्टी जिनका आप प्रतिनिधित्व कर रहें है उसका पैसा कहाँ से आता हैॽ क्या उसके जनता द्वारा जांच की अनुमति है?
२. ऎसा कहा जाता है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने बीते दो वर्ष में श्रमिकों की हड़ताल के नेताओं और आयोजकों की गिरफ्तारी करने में अंग्रेजों की सहायता की है।

सब से महत्वपूर्ण बात जो महात्मा गांधी लिखते है
३. कहा जाता है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने शत्रु भाव से कॉग्रेस संगठन में घूसने की नीति अपनाई हैं।
४. बहार से (अर्थात रशिया और चीन से) आदेश लेना यह कम्युनिस्ट पार्टी की नीति नहीं है?
 नेहरूजी के बाद जब कॉग्रेस का विभाजन हुआ तब इन्दिरा गाँधीजी की कॉग्रेस ने सीपीआई का समर्थन लिया। इन्दिराजी द्वारा लागु आपातकाल का सीपीआई ने समर्थन किया था! जो अब वाणी स्वातंत्र्य और फ्रीडम अॉफ प्रेस की बारबार दुहाई देतें हैं। इसी सीपीआई (जिसके ऊपर उल्लेखित पी सी जोशी नेता थे) के डी राजा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चेलमेश्वर से मिलने गये थे और यही चेलमेश्वर ने तीन न्यायमूर्तियों के साथ मिल के न्यायतंत्र में अविश्वास जगाने के लिए बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके विद्रोह जैसा काम किया था।

राजीव गांधी और नरसिंह राव कदाचित वामपंथियों से खास प्रभावित नहीं रहे। हालांकि भाजपा ने १९८९ में वामपंथियों के साथ वी पी सिंह सरकार को समर्थन जरूर दिया। और २०१२ में भाजपने मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में वामपंथियों के साथ मिल के रिटेल में एफडीआई का विरोध भी किया। (Precisely on 20 September 2012)

१९९७ में प्रधानमंत्री रहे आई के गुजराल जनता दल से पहले कॉग्रेस में और उससे पहले विद्यार्थी काल में सीपीआई के सदस्य रहे।

मनमोहनसिंह की युपीए प्रथम सरकार को वामपंथियों का समर्थन था। लेकिन जब अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर वामपंथियों ने समर्थन वापस लिया तब पहली (और कदाचित अंतिम बार)  मनमोहन ने वीरता का परिचय देते हुए सोनिया गांधी को भी दृढ़तापूर्वक ना बोलते हुए कहा कि सत्ता जाती है तो जाए किन्तु वामपंथियों से इस पर कोई समझौता नहीं होगा।

सोनिया जी ने युपीए प्रथम के शासन काल में  राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) बनाई थी जो नीति निर्धारण करने में इनपुट देती थी। उसमें वामपंथियों का वर्चस्व था। और वर्तमान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने पीछले वर्ष ९ जनवरी को ७१० फाइलें पब्लिक के सामने रखी वो दर्शाता है कि वास्तव में एनएसी की ही चलती थी।

कॉग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष राहुल गांधी भी वामपंथी विचारधारा से प्रभावित हैं। हालांकि राजदीप सरदेसाई जो कि विचारधारा से भाजप के धुर विरोधी माने जाते हैं और कॉग्रेस की विचारधारा के निकट, वह अपनी किताब '२०१४ चुनाव जिसने भारत को बदल दिया' में लिखते हैं, " हालांकि कि स्पष्ट लग रहा था कि राहुल दोहरी जिंदगी जी रहे हैं। दिन में वह विचारकों और कार्यकर्ताओं के साथ व्यस्त रहते थे लेकिन रात में ऐसा लगता था कि वह पेज तीन के चर्चित मित्रों के साथ खुद को सहज महसूस करते थे। ...'

राजदीप ने इसी पुस्तक में लिखा है,
"राहुल गांधी ने अपने 'राजनैतिक प्रशिक्षण' की प्रक्रिया में वामपंथ की ओर झुकाव वाले। शिक्षाविदों का भी सहयोग मांगा था।... जेएनयू की प्रो.सुधा ऐसी ही एक शिक्षाविद थी। राहुल गांधी ने १९९० में जेएनयू में एक सेमिनार में भी हिस्सा लिया था। ब्राह्मण वाद विरोधी दृष्टिकोण के लिए हंमेशा चर्चित दलित बहुजन विद्वान कांचा इलैया भी उनसे जुड़े थे।"

वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाले जयराम रमेश भी राहुल को प्रभावित करने वालो में से है। बकौल राजदीप,"मैने राहुल के साथ उनके तालमेल के बारे में जयराम से पूछा कि क्या उन्होंने राहुल के सामाजिक और आर्थिक दर्शन को आकार दिया? उन्होंने कहा, "मैं उनका सलाहकार नहीं था। जब भी उन्हें मदद की जरूरत होती थी तो मैं उनके लिए उपलब्ध था। "

आम आदमी पार्टी की स्थापना काल से प्रशांत भूषण जैसे नक्सलाइट सिम्पेथाइझर जुड़े। आआप को कई neo left मानते है।

तो, संघ परिवार की विफलता यहां भी दिखती है। उपर दर्शाये हुए चार क्षेत्र - मिडिया, अध्यापन, साहित्य और कला के उपरांत उसकी विचारधारा पूरे राजनैतिक क्षेत्र को, खास कर जो सत्ता में रहे, उनको प्रभावित न कर सकी। कर भी कैसे पाती? गांधी परिवार संघ परिवार के और संघ परिवार गांधी परिवार के विरोधी छोर पर ही खडा रहा। और जो संघ परिवार की विचारधारा के निकट थे, चाहे सरदार पटेल हो या मोरारजी देसाई, सत्ता में या तो प्रथम स्थान पर नहीं रहे, रहे तो अल्पकाल के लिए। एक अपवाद नरसिंह राव जी का अवश्य रहा। जिनके बारे में कहा जाता है कि वह धोती के नीचे संघ की खाखी चड्डी पहनते थे ।

और एसा मत मानीए कि कम्युनिस्टो ने केवल कांग्रेस और जनता दल के प्रधानमंत्रीओ को ही प्रभावित किया। सुधीन्द्र  कुलकर्णी जो पहले सीपीएम के कार्ड हॉल्डर सदस्य थे वह १९९६ में भाजप सत्ता के एकदम निकट आ गई तो भाजप में जुड गये। और तो और वह पहले अटलबिहारी वाजपेयीजी  और बाद में लालकृष्ण आडवाणी के निकट के सलाहकार बन गये और दोनो नेताओ की लुटिया डूबो दी।

तो फिर से प्रश्न यह ही आता है कि नक्सल समर्थक वामपंथियों की गिरफ्तारी तो अस्थाई उपाय है। क्या संघ परिवार अपनी विचारधारा को इतना फैला सकेगा जिससे भाजप (उसमें बहोत से सुधीन्द्र कुलकर्णी जैसे लोग होंगे ही)या गेरभाजप दलों को, मिडिया, अध्यापन, साहित्य और कला कोई भी क्षेत्र अछूता न रह पाये?

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